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इन पांच महिलाओं ने स्वरोजगार को चुना रास्ता — कला, स्वाद और आत्मनिर्भरता से रचा सफलता का अनोखा सफर

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नई दिल्ली। भोपाल की ज़मीन से उभरीं पांच सशक्त महिलाएँ—आशी सरभैया, भाग्यश्री खेड़कर, नीति गौर, तृप्ति गुप्ता और प्रज्ञा औरंगाबादकर—ने अपने जुनून, कला और परंपरा के बलबूते न सिर्फ खुद को सशक्त बनाया, बल्कि समाज में मिसाल कायम की है। कोई भारतीय लोककला को वैश्विक मंच पर ले गई, तो किसी ने रसोई की खुशबू से घर-घर में भरोसा और स्वाद पहुंचाया। इन महिलाओं ने दिखा दिया कि जब मेहनत, संवेदना और परंपरा एक साथ चलती हैं, तो एक नई पहचान खुद-ब-खुद बनती है। यह है उन सपनों की कहानी, जो घर की चारदीवारी से निकलकर समाज में रोशनी बन गए, और जिनकी प्रेरणा अगली पीढ़ी की बेटियों को भी आत्मनिर्भर बनने का रास्ता दिखा रही है।

भोपाल की नीति गौर का ‘मृत्सा स्टूडियो’: लोककला को नया जीवन देने वाली प्रेरणादायक कहानी

भोपाल निवासी और ‘मृत्सा स्टूडियो’ की संस्थापक नीति गौर ने पारंपरिक आदिवासी कला को अपने जुनून और मेहनत के जरिए एक नए मुकाम पर पहुँचाया है। नौसेना अधिकारी के रूप में तैनात अपने पति के साथ गुजरात के एक गांव में रहते हुए नीति ने स्थानीय जनजातीय महिलाओं से पारंपरिक कला सीखी। यह कला शौक के तौर पर शुरू हुई, लेकिन लॉकडाउन के दौरान जब समय और अवसर दोनों एक साथ मिले, तो यह कला व्यवसाय में बदल गई। 2021 में 128 पीस तैयार करने के बाद उनके बेटे ने ‘मृत्सा’ नाम सुझाया, जिसका अर्थ है “अच्छी धरती”—यहीं से ब्रांड की औपचारिक शुरुआत हुई।

‘मृत्सा स्टूडियो’ पारंपरिक आर्टवर्क को आधुनिक जरूरतों के अनुसार ढालने का प्रयास करता है। नीति डेनिम पर ट्राइबल आर्ट वर्क, हैंडमेड वॉल क्लॉक्स और अन्य डेकोरेटिव प्रोडक्ट्स तैयार करती हैं। उनके साथ चार कॉलेज छात्राएँ भी जुड़ी हैं, जो इस काम से अपनी पढ़ाई की फीस निकालती हैं। यह न केवल कला का संरक्षण है, बल्कि आत्मनिर्भरता और स्वरोजगार का भी सशक्त माध्यम है। हाल ही में उन्होंने सिंगापुर में इंटरनेशनल एग्ज़िबिशन में भाग लिया, जहाँ उनके काम को खूब सराहा गया।

नीति गौर का सपना है कि ‘मृत्सा स्टूडियो’ विलुप्त हो रही पारंपरिक कलाओं को एक नई पहचान दिलाए और आने वाली पीढ़ियों में इन कलाओं के प्रति जागरूकता और रुचि उत्पन्न हो। वह चाहती हैं कि लोग हस्तशिल्प की मेहनत और उसकी सांस्कृतिक गहराई को समझें और सराहें। परिवार का सहयोग, संतुलित दिनचर्या, और समाज के लिए कुछ करने की भावना ने नीति को एक ऐसी महिला उद्यमी बना दिया है जो न केवल कला को जीवित रखे हुए हैं, बल्कि दूसरों के लिए प्रेरणा का स्रोत भी बन चुकी हैं।

भोपाल की बेटी आशी सरभैया ने ‘कला सागा’ से दी भारतीय लोककला को नई पहचान

भोपाल की रहने वाली आशी सरभैया ने अपनी बहन के साथ मिलकर वर्ष 2019 में ‘कला सागा’ की शुरुआत की, जो आज भारतीय पारंपरिक कला के संवर्धन का एक प्रमुख केंद्र बन चुका है। बचपन से कला में रुचि रखने वाली आशी ने अपने घर के माहौल और मानव संग्रहालय की कार्यशालाओं से कला की बारीकियाँ सीखीं। मधुबनी, गोंड और बाघ प्रिंट जैसी क्षेत्रीय कलाओं को गहराई से समझते हुए, उन्होंने इसे सिर्फ एक शौक न मानकर एक व्यवसायिक पहल में बदला। दुबई में जॉब के अनुभव के बाद उन्होंने तय किया कि भारतीय लोककला को सहेजने और बढ़ावा देने के लिए एक सशक्त मंच तैयार किया जाए।

‘कला सागा’ के माध्यम से वे होम डेकॉर के क्षेत्र में पारंपरिक कलाओं को आधुनिक रूप में प्रस्तुत कर रही हैं। गोबर, कैनवास और बोट पर बनी पेंटिंग्स से लेकर ब्लॉक प्रिंट वाले कुशन कवर्स और कर्टेन्स तक, उनकी हर रचना भारतीयता की झलक लिए होती है। आशी का कहना है कि यह सिर्फ एक बिजनेस नहीं, बल्कि एक अभियान है—खासतौर पर उन कलाओं को पुनर्जीवित करने का, जो आज गुमनामी के कगार पर हैं। उन्होंने एनजीओ के साथ मिलकर भी काम किया, जिससे ग्रामीण महिला कारीगरों को रोजगार के अवसर मिले।

शुरुआत में सोशल मीडिया की समझ की कमी और निवेश की चुनौतीें रही, लेकिन धीरे-धीरे ‘कला सागा’ ने अपना स्थान बनाया। भोपाल, मालवा और निमाड़ क्षेत्र की पारंपरिक कलाओं को प्रमोट करते हुए, आशी चाहती हैं कि ‘कला सागा’ का नाम एमपी की सांस्कृतिक पहचान के रूप में लिया जाए। उनका सपना है कि जब भी कोई पारंपरिक कला की बात करे, तो ‘कला सागा’ का नाम सबसे पहले याद आए।

भोपाल की भाग्यश्री खेड़कर का ‘श्री सुख’ ब्रांड: मेहनत, कला और विश्वास से बना एक खास सफर

भोपाल की भाग्यश्री देवेंद्र खेड़कर ने अपने क्रिएटिव हुनर और सांस्कृतिक समझ को मिलाकर ‘श्री सुख’ नाम से एक ऐसा प्लेटफॉर्म तैयार किया है, जो शादी-ब्याह और पारंपरिक आयोजनों में मराठी कलाओं और हैंडमेड प्रोडक्ट्स को खास पहचान देता है। मिट्टी चिरौंजी की पारंपरिक ज्वेलरी से लेकर रंगोली और इवेंट डेकोरेशन तक, भाग्यश्री की यात्रा एक साधारण शुरुआत से एक गहरी पहचान की ओर बढ़ी है। बिना किसी प्रचार या विज़िटिंग कार्ड के, केवल ग्राहकों के भरोसे और अपने काम की गुणवत्ता के दम पर उन्होंने अपने काम को लोगों तक पहुँचाया।

भाग्यश्री न सिर्फ डेकोर आइटम्स और ज्वेलरी खुद बनाती हैं, बल्कि हर वेडिंग थीम में लोक परंपरा और सौंदर्य का अनूठा संतुलन बिठाती हैं। उनका हर सुझाव ग्राहकों के कपड़ों, अवसरों और फंक्शन की थीम के अनुसार होता है। उनके काम की सबसे खास बात यह है कि वह हर क्लाइंट से एक भावनात्मक रिश्ता बनाती हैं। अक्सर ग्राहक अपनी ज्वेलरी और सामग्रियाँ उन्हें सौंपते हैं, यह भरोसे का प्रमाण है। उन्होंने यह सब अपनी दोस्त सुखदा नागरिक के सहयोग से रातों को जागकर किया—एक ओर सरकारी दफ्तर की नौकरी, दूसरी ओर रचनात्मक जिम्मेदारी।

‘श्री सुख’ का मूल मंत्र है—“भरोसे से काम कीजिए, निराशा नहीं मिलेगी।” भाग्यश्री कहती हैं कि इवेंट में आखिरी समय की परिस्थितियों को भी संभालने के लिए तुरंत निर्णय लेने की क्षमता होनी चाहिए। उनका लक्ष्य न केवल सौंदर्यपूर्ण सजावट करना है, बल्कि हर आयोजन को ग्राहकों की यादों में हमेशा के लिए खास बना देना है। उनका सपना है कि ‘श्री सुख’ हर घर में मराठी परंपरा का हिस्सा बने और कला व संस्कृति से भरा एक नाम बनकर उभरे।

भोपाल की ‘तृप्ति की रसोई’: स्वाद, समर्पण और संस्कार से बना घरेलू ब्रांड

भोपाल की रहने वाली तृप्ति गुप्ता ने अपनी कुकिंग के शौक को एक पहचान में बदलते हुए ‘तृप्ति की रसोई’ नाम से एक घरेलू व्यवसाय की शुरुआत की, जो अब न सिर्फ भोपाल में बल्कि विदेशों तक स्वाद का झंडा गाड़ रहा है। तृप्ति बताती हैं कि शादी के बाद 20 साल तक कुकिंग को व्यवसाय में बदलने की इच्छा तो थी, पर पारिवारिक समर्थन की कमी के कारण देरी हुई। अंततः जब अनुमति मिली तो घर से ही शुरुआत की और “माउथ पब्लिसिटी” के जरिए उनका काम फैलता चला गया। उनके द्वारा बनाए गए पापड़, अचार, लड्डू और स्नैक्स आज लोगों के दिलों तक पहुँच चुके हैं।

हालांकि तृप्ति अभी किसी ऑनलाइन प्लेटफॉर्म से नहीं जुड़ी हैं, लेकिन उनका स्वाद और गुणवत्ता इतनी दमदार है कि भारत से बाहर—जैसे इंडोनेशिया, जर्मनी और बाली—तक उनके उत्पाद जा चुके हैं। वे कहती हैं कि उनका हर व्यंजन प्रेम और समर्पण से तैयार होता है, इसलिए उसका स्वाद लोगों को बाँध लेता है। उनके अनुसार, खाना सिर्फ सामग्री से नहीं, बल्कि भावनाओं से भी बनता है। यही कारण है कि जो एक बार उनका स्वाद चखता है, बार-बार लौटकर आता है।

‘तृप्ति की रसोई’ में तीन सहयोगी काम करते हैं और तृप्ति उन्हें नियमित भुगतान करती हैं। घर की जिम्मेदारियों और व्यवसाय के बीच तृप्ति ने संतुलन साधा है। उनका मानना है कि परिवार के सहयोग और आत्मविश्वास से कोई भी महिला अपना सपना साकार कर सकती है। तृप्ति के बनाए व्यंजनों की प्रशंसा आज न सिर्फ़ भारत में होती है, बल्कि अमेरिका, कतर और कनाडा में भी तृप्ति की रसोई की मांग है| आने वाले समय में वह अपने ब्रांड को और विस्तारित करने का लक्ष्य रखती हैं—क्वालिटी से कभी समझौता न करते हुए, हर रसोई में तृप्ति का स्वाद पहुँचाने की दिशा में।

भोपाल की ‘श्री गृह उद्योग’ की प्रज्ञा औरंगाबादकर: स्वाद, शुद्धता और आत्मनिर्भरता की मिसाल

भोपाल की उद्यमी प्रज्ञा औरंगाबादकर ने 2015 में अपनी पहल ‘श्री गृह उद्योग’ की शुरुआत की, जब रिटायरमेंट के बाद आराम करने के बजाय उन्होंने समाजसेवा और आत्मनिर्भरता की राह चुनी। शुरुआत में उन्होंने 5-6 महिलाओं को प्रशिक्षण देकर उन्हें रोजगार दिया और धीरे-धीरे अपना खाद्य उत्पाद आधारित स्टार्टअप खड़ा किया। प्रज्ञा बताती हैं कि मंत्रालय में कार्यरत रहते हुए उनके बनाए व्यंजनों की पहले से ही सराहना होती रही थी, जिससे व्यवसाय की नींव मजबूत रही।

आज वे घर की वर्कशॉप से शुद्ध और घर में पीसे गए मसालों, बेसन और आटे से स्वादिष्ट मिठाइयाँ, नमकीन और उपवास विशेष खाद्य सामग्री बनाती हैं। उनकी वर्कशॉप पूरी तरह से साफ-सुथरी है और गुणवत्ता का विशेष ध्यान रखा जाता है। भले ही ऑनलाइन वे फिलहाल केवल भोपाल में ही सेवा दे रही हैं, लेकिन उनके बनाए उत्पाद रिश्तेदारों के ज़रिए अमेरिका और यूएई तक पहुँच चुके हैं। व्हाट्सएप और स्थानीय ग्रुप्स के माध्यम से उन्हें नियमित ऑर्डर मिलते हैं।

प्रज्ञा का मानना है कि यह काम उनके लिए केवल व्यवसाय नहीं, बल्कि आत्मसंतोष का जरिया है। वे कहती हैं, “लोगों को अपने हाथों से बना खाना खिलाकर जो तृप्ति उनके चेहरे पर दिखती है, वही मेरी असली कमाई है।” वे आगे अपने उद्योग को नए प्रयोगों और उत्पादों के साथ विस्तार देना चाहती हैं, लेकिन बिना शुद्धता और स्वाद से समझौता किए। उनका यह सफर प्रेरणादायक है—विशेषकर उन महिलाओं के लिए, जो जीवन के किसी भी मोड़ पर अपने जुनून को रोजगार में बदलने की हिम्मत रखती हैं।

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चंचल गोयल, अभिभावक, ग्वालियर, एमपी

जब पेरेंट्स अपने बच्चों को प्राइमरी स्कूल भेजते हैं, तो उनकी प्राथमिक अपेक्षा होती है कि बच्चों को मजेदार तरीके से सीखने का अवसर मिले। छोटे बच्चों का दिमाग पहले आनंद लेना चाहता है। अगर उन्हें मजा नहीं आएगा, तो वे आगे नहीं बढ़ेंगे। हर बच्चे के अंदर प्रतिभा होती है, जरूरी है हम उसे समझें।

बच्चों के स्कूल जाने से पहले पेरेंट्स की काउंसलिंग होनी चाहिए। यह समझना ज़रूरी है कि आपके बच्चे को क्या चाहिए, और उसी के आधार पर स्कूल का चयन करें। ऐसा स्कूल चुनें जिसमें खुला क्षेत्र हो और स्टाफ बच्चों की समस्याओं को हल करने में सक्षम हो। स्कूल और उसकी फैकल्टी बच्चों को संतुष्ट करने में भी सक्षम होना चाहिए।

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चंचल गोयल, अभिभावक, ग्वालियर, एमपी

मैंने अपने 15 साल के शिक्षा के क्षेत्र में अनुभव के आधार पर देखा है कि प्राइमरी टीचर्स की बॉन्डिंग बच्चों के साथ बहुत अच्छी होती है।  यह उम्र के बच्चे अपने टीचर्स को फॉलो करते हैं और पेरेंट्स से भी लड़ जाते हैं। इसलिए, स्कूल और टीचर्स पर बड़ी जिम्मेदारी होती है कि वे बच्चों को खुश रखें।

अगर बच्चा अच्छा परफॉर्म करने लगे, तो पेरेंट्स उसे अपना हक मान लेते हैं। पेरेंट्स को विश्वास करना चाहिए कि जिस स्कूल में उन्होंने दाखिला कराया है, वह बच्चों के लिए सही है। लेकिन अपने बच्चों का रिजल्ट किसी और के बच्चे से कंपेयर नहीं करना चाहिए। आजकल के पेरेंट्स समझदार हैं और जानते हैं कि बच्चों को कैसी शिक्षा देनी है। किसी भी समस्या के लिए वे सीधे टीचर से बात कर सकते हैं, जिससे समस्या का समाधान जल्दी हो सके।

प्रियंका जैसवानी चौहान, हेड मिस्ट्रेस, बिलाबोंग हाई इंटरनेशनल स्कूल, ग्वालियर, एमपी

जुलाई का सत्र बच्चों के लिए महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि यह सबसे बड़ा वेकेशन होता है।  पेरेंट्स को बच्चों की लास्ट सेशन की पढ़ाई का रिवीजन कराना चाहिए ताकि वे आउट ऑफ रेंज न हो जाएं। शुरुआती अध्याय बच्चों की रुचि को बनाए रखने में महत्वपूर्ण होते हैं।

आगे वे कहते हैं कि प्रेशर का नेगेटिव और पॉजिटिव दोनों प्रभाव होते हैं। आज की युवा पीढ़ी में 99% लोग बिजनेस और स्टार्टअप्स शुरू कर रहे हैं। पढ़ाई को लेकर बच्चों पर दबाव डालना गलत है, लेकिन भविष्य के लिए यह लाभदायक हो सकता है। बच्चों को गैजेट्स का सही उपयोग आना चाहिए, लेकिन उन पर पूर्णतः निर्भर होना गलत है।

तुषार गोयल, एचओडी इंग्लिश, बोस्टन पब्लिक स्कूल, आगरा, यूपी

वेकेशंस के दौरान बच्चों की पढ़ाई पूरी तरह नहीं हटानी चाहिए। स्कूल द्वारा दिए गए प्रोजेक्ट्स को धीरे-धीरे  करने से पढ़ाई का दबाव नहीं बनता। जब पढ़ाई फिर से शुरू होती है, तो बच्चों को अधिक दबाव महसूस नहीं होता। आजकल स्कूल बहुत मॉडर्नाइज हो गए हैं जिससे बच्चों को हेल्दी एटमॉस्फियर और खेल-खेल में सीखने को मिलता है।

एडमिनिस्ट्रेशन को बुक्स का टाइम टेबल सही तरीके से बनाना चाहिए ताकि बच्चों पर वजन कम पड़े। स्कूल में योग और एक्सरसाइज जैसी गतिविधियाँ भी शुरू होनी चाहिए ताकि बच्चे फिट रहें और उन्हें बैक प्रेशर न हो। टीचर और पेरेंट्स के बीच का कम्यूनिटेशन गैप काम होना चाहिए। बच्चों का एडमिशन ऐसे स्कूल में करें जिसका रिजल्ट अच्छा हो, भले ही उसका नाम बड़ा न हो।

डॉ. नेहा घोडके, अभिभावक, ग्वालियर, एम

बच्चों को पढ़ाई की शुरुआत खेलते-कूदते करनी चाहिए ताकि उन्हें बोझ महसूस न हो। पेरेंट्स की अपेक्षाएं आजकल बहुत बढ़ गई हैं,  लेकिन हर बच्चा समान नहीं होता। बच्चों को अत्यधिक दबाव में न डालें, ताकि वे कोई गलत कदम न उठाएं। वे आगे कहती हैं कि आजकल बच्चे दिनभर फोन का उपयोग करते रहते हैं, और पेरेंट्स उन्हें फोन देकर उनसे छुटकारा पाना चाहते हैं। पेरेंट्स को बच्चों पर ध्यान देना चाहिए और उन्हें कम से कम समय के लिए फोन देना चाहिए।

दीपा रामकर, टीचर, माउंट वर्ड स्कूल, ग्वालियर, एमपी

हमारे स्कूल में पारदर्शिता पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। आजकल के समय में पेरेंट्स अपने काम में व्यस्त रहते हैं और बच्चों की पढ़ाई पर समय कम दे पाते हैं। स्कूल द्वारा टेक्नोलॉजी की मदद से बच्चों का होमवर्क पेरेंट्स तक पहुँचाया जाता है ताकि वे बच्चों पर ध्यान दे सकें।

पेरेंट्स को बच्चों को गैजेट्स देते वक्त ध्यान रखना चाहिए की वह उसका कितना इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्हें मोबाइल का कम से कम उपयोग करने देना चाहिए। अगर आप अपने बच्चों के सामने बुक रीड करेंगे तो बच्चा भी बुक रीड करने के लिए प्रेरित होगा।

दीक्षा अग्रवाल, टीचर, श्री राम सेंटेनियल स्कूल, आगरा, यूपी

वर्तमान समय में बच्चों को पढ़ाने की तकनीक में बदलाव आया है, आजकल थ्योरी से ज्यादा प्रैक्टिकल बेस्ड लर्निंग पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। आजकल पेरेंट्स भी पहले से बेहद अवेयर हैं, क्योंकि अब बच्चों के करियर पॉइंट ऑफ व्यू से कई विकल्प हमारे सामने होते हैं जरूरी है कि पेरेंट्स बच्चों के साथ प्रॉपर कम्युनिकेट करें।

अंकिता राणा, टीजीटी कोऑर्डिनेटर, बलूनी पब्लिक स्कूल, दयालबाग, आगरा, यूपी

वर्तमान समय में बच्चों को पढ़ाने की तकनीक में बदलाव आया है, आजकल थ्योरी से ज्यादा प्रैक्टिकल बेस्ड लर्निंग पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। आजकल पेरेंट्स भी पहले से बेहद अवेयर हैं, क्योंकि अब बच्चों के करियर पॉइंट ऑफ व्यू से कई विकल्प हमारे सामने होते हैं जरूरी है कि पेरेंट्स बच्चों के साथ प्रॉपर कम्युनिकेट करें।

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